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मि. जॉन सेवक ने भी अपने पिता के आदेशानुसार दोरुखी चाल चलनी शुरू की। वह गुप्त रूप से तो राजा महेंद्रकुमार सिंह की कल घुमाते रहते थे; पर प्रकट रूप से मिस्टर क्लार्क के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रखते थे। रहे मि. ईश्वर सेवक, वह तो समझते थे, खुदा ने सोफ़िया को मिस्टर क्लार्क ही के लिए बनाया है। वह अकसर उनके यहाँ आते थे और भोजन भी वहीं कर लेते थे। जैसे कोई दलाल ग्राहक को देखकर उसके पीछे-पीछे हो लेता है, और उसे किसी दूसरी दूकान पर बैठने नहीं देता, वैसे ही वह मिस्टर क्लार्क को घेरे रहते थे कि कोई ऊँची दूकान उन्हें आकर्षित न कर ले। मगर इतने शुभेच्छुकों के रहते हुए भी मिस्टर क्लार्क को अपनी सफलता दुर्लभ मालूम होती थी।
सोफ़िया को इन दिनों बनाव-सिंगार का बड़ा व्यसन हो गया था। अब तक उसने माँग-चोटी या वस्त्राभूषण की कभी चिंता न की थी। भोग-विलास से दूर रहना चाहती थी। धर्म-ग्रंथों की यही शिक्षा थी, शरीर नश्वर है, संसार असार है, जीवन मृग-तृष्णा है, इसके लिए बनाव-सँवार की जरूरत नहीं। वास्तविक शृंगार कुछ और ही है, उसी पर निगाह रखनी चाहिए। लेकिन अब तक वह जीवन को इतना तुच्छ न समझती थी। उसका रूप कभी इतने निखार पर न था। उसकी छवि-लालसा कभी इतनी सजग न थी।
संधया हो चुकी थी। सूर्य की शीतल किरणें, किसी देवता के आशीर्वाद की भाँति, तरु-पुंजों के हृदय को विहसित कर रही थीं। सोफ़िया एक क्ुं+ज में खड़ी आप-ही-आप मुस्करा रही थी कि मिस्टर क्लार्क की मोटर आ पहुँची। वह सोफ़िया को बाग में देखकर सीधो उसके पास आए और एक कृपा-लोलुप दृष्टि से देखकर उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफ़िया ने मुँह फेर लिया, मानो उनके बढ़े हुए हाथ को देखा ही नहीं।
सहसा एक क्षण बाद उसने हास्य-भाव से पूछा-आज कितने अपराधियों को दंड दिया?
मिस्टर क्लार्क झेंप गए। सकुचाते हुए बोले-प्रिये, यह तो रोज की बातें हैं, इनकी क्या चर्चा करूँ?
सोफी-तुम यह कैसे निश्चय करते हो कि अमुक अपराधी वास्तव में अपराधी है? इसका तुम्हारे पास कोई यंत्र है?
क्लार्क-गवाह तो रहते हैं।
सोफी-गवाह हमेशा सच्चे होते हैं?
क्लार्क-कदापि नहीं। गवाह अकसर झूठे और सिखाए हुए होते हैं।
सोफी-और उन्हीं गवाहों के बयान पर फैसला करते हो!
क्लार्क-इसके सिवा और उपाय ही क्या है!
सोफी-तुम्हारी असमर्थता दूसरे की जान क्यों ले? इसीलिए कि तुम्हारे वास्ते मोटरकार, बँगला, खानसामे, भाँति-भाँति की शराब और विनोद के अनेक साधन जुटाए जाएँ?
क्लार्क ने हतबुध्दि की भाँति कहा-तो क्या नौकरी से इस्तीफा दे दूँ?
सोफ़िया-जब तुम जानते हो कि वर्तमान शासन-प्रणाली में इतनी त्रुटियाँ हैं, तो तुम उसका एक अंग बनकर निरपराधियों का खून क्यों करते हो?
क्लार्क-प्रिये, मैंने इस विषय पर कभी विचार नहीं किया।
सोफ़िया-और बिना विचार किए ही नित्य न्याय की हत्या किया करते हो। कितने निर्दयी हो!
क्लार्क-हम तो केवल कल के पुर्जे हैं, हमें ऐसे विचारों से क्या प्रयोजन?
सोफी-क्या तुम्हें इसका विश्वास है कि तुमने कोई अपराध नहीं किया?
क्लार्क-यह दावा कोई मनुष्य नहीं कर सकता।
सोफी-तो तुम इसीलिए दंड से बचे हुए हो कि तुम्हारे अपराध छिपे हुए हैं?
क्लार्क-यह स्वीकार करने को जी तो नहीं चाहता; विवश होकर स्वीकार करना पड़ेगा।
सोफी-आश्चर्य है कि स्वयं अपराधी होकर तुम्हें दूसरे अपराधियों को दंड देते हुए जरा भी लज्जा नहीं आती!
क्लार्क-सोफी, इसके लिए तुम फिर कभी मेरा तिरस्कार कर लेना। इस समय मुझे एक महत्तव के विषय में तुमसे सलाह लेनी है। खूब विचार करके राय देना। राजा महेंद्रकुमार ने मेरे फैसले की अपील गवर्नर के यहाँ की थी, इसका जिक्र तो मैं तुमसे कर ही चुका हूँ। उस वक्त मैंने समझा था, गवर्नर अपील पर धयान न देंगे। एक जिले के अफसर के खिलाफ किसी रईस की मदद करना हमारी प्रथा के प्रतिकूल है,क्योंकि इससे शासन में विघ्न पड़ता है; किंतु 6-7 महीनों में परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई है, राजा साहब ने अपनी कुल-मर्यादा, दृढ़ संकल्प और तर्क-बुध्दि से इतनी अच्छी तरह काम लिया है कि अब शायद फैसला मेरे खिलाफ होगा। काउंसिल में हिंदुस्तानियों का बहुमत हो जाने के कारण अब गवर्नर का महत्तव बहुत कम हो गया है। यद्यपि वह काउंसिल के निर्णय को रद्द कर सकते हैं, पर इस अधिकार से वह असाधारण अवसरों पर ही काम ले सकते हैं। अगर राजा साहब की अपील वापस कर दी गई, तो दूसरे ही दिन देश में कुहराम मच जाएगा और समाचार-पत्रों को विदेशी राज्य के एक नए अत्याचार पर शोर मचाने का वह मौका मिल जाएगा जो वे नित्य खोजते रहते हैं। इसलिए गवर्नर ने मुझसे पूछा है कि यदि राजा साहब के आँसू पोंछे जाएँ, तो तुम्हें कुछ दु:ख तो न होगा? मेरी समझ में नहीं आता, इसका क्या उत्तार दूँ। अभी तक कोई निश्चय नहीं कर सका